‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ के 25 साल: निवेदिता बसु की यादों में बसी वो कहानी जिसने भारतीय टेलीविज़न को बदल दिया - Manoranjan Metro


भारतीय टेलीविज़न के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ शो क्योंकि सास भी कभी बहू थी अब अपने शानदार 25 साल पूरे कर रहा है। एक नई पीढ़ी के लिए यह शो फिर से लौटने जा रहा है, और इस ऐतिहासिक मौके पर क्रिएटिव डायरेक्टर निवेदिता बसु, जो शो की शुरुआती टीम का अहम हिस्सा थीं, पुरानी यादों में खो जाती हैं—उन पलों को याद करते हुए जो इस शो को भारतीय घरों का हिस्सा बना गए।

यह शो पहली बार 3 जुलाई 2000 को प्रसारित हुआ था और एकता कपूर के प्रोडक्शन में बना यह धारावाहिक प्राइम टाइम सोप ऑपेराज़ के लिए एक नया मानदंड बन गया था। इसने स्मृति ईरानी और अमर उपाध्याय जैसे कलाकारों को स्टार बना दिया और टेलीविज़न की एक नई दिशा तय कर दी।

निवेदिता कहती हैं, “तब टेलीविज़न ही एकमात्र माध्यम था। न ओटीटी था, न ज़्यादा फिल्में। पूरा देश एक ही शो देखता था। सोशल मीडिया भी नहीं था, लेकिन क्योंकि की लोकप्रियता अद्भुत थी।”

वो याद करती हैं कि कैसे शो का प्रभाव आम ज़िंदगी में दिखता था—“एकता और मैं सिद्धिविनायक जाती थीं, और बुज़ुर्ग लोग उनके पैर छूते थे। हमारे घर की सीढ़ियाँ चढ़ते वक्त हर घर में शो का टाइटल ट्रैक बजता था। तब समझ आता था कि पूरा देश ये शो देख रहा है।”

हालांकि शो की पहुंच ऐतिहासिक थी, लेकिन इसके निर्माण की प्रक्रिया आसान नहीं थी। 32 कलाकारों को एक साथ समन्वित करना एक बड़ी चुनौती थी।“अधिकतर कलाकार एक साथ कई शोज़ या थिएटर कर रहे थे। सबको एकसाथ लाना बहुत कठिन काम था,” बसु बताती हैं।

लेकिन असली दबाव था क्रिएटिव डिलीवरी का।“जब हम कोई बड़ा ट्रैक प्लान करते थे, तो सिर्फ टीआरपी के लिए नहीं। हमें पता होता था कि बड़े फिल्म डायरेक्टर्स, क्रिटिक्स और इंडस्ट्री के लोग हमें देख रहे हैं और फीडबैक भेज रहे हैं। यह एक अलग ही स्तर का दबाव था।”

इसका नतीजा? ऐतिहासिक व्यूअरशिप।“जब मिहिर वापस आया, तो टीआरपी 27 पहुंच गई थी। आज भी कई चैनलों की कुल टीआरपी मिलाकर इतनी नहीं होती।”

मिहिर की "मौत" वाला ट्रैक आज भी लोगों के ज़हन में ताज़ा है।“एकता ने उस एपिसोड का अंत अमर की असली जन्मतिथि और किरदार की मौत की तारीख दिखाकर किया। लोग सचमुच रो पड़े। कुछ तो सोच बैठे कि अमर सच में मर गया है। हमें उसे ऑफिस बुलाकर लोगों को भरोसा दिलाना पड़ा कि वह ज़िंदा है!”

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जब शो को "रिग्रेसिव" कहा गया, तो बसु ने इसका ज़ोरदार खंडन किया—“ये कितना विडंबनापूर्ण है! लोग कहते थे कि शो पिछड़ा हुआ है, लेकिन हमारे मेल एक्टर्स अक्सर कहते कि शो बहुत प्रोग्रेसिव है! हमारी महिलाएं कहानी की मुख्य धारा थीं। हमने इच्छामृत्यु, विधवा विवाह, वैवाहिक बलात्कार और यहां तक कि एक मां का अपने बेटे को मारना जैसे मुद्दों को उठाया।”

तुलसी (स्मृति ईरानी) द्वारा अपने बेटे अंश को गोली मारने वाला सीन आज भी याद किया जाता है।“वो इतना असरदार था कि पूरा देश तुलसी के साथ खड़ा था। सड़क पर लोग हमें बताते थे कि उनकी बहू तो अंश से भी बुरी है,” वो हँसते हुए बताती हैं।

2000 के दशक की शुरुआत में बालाजी टेलीफिल्म्स का सेट मानो एक क्रिएटिव वॉर ज़ोन बन चुका था—“एक फ्लोर पर मीटिंग्स, दूसरे पर शूट। एक्टर सो नहीं पाते थे, हम भी नहीं। लेकिन एनर्जी ज़बरदस्त थी,” बसु याद करती हैं।

उस दौर में सोशल मीडिया की गैर-मौजूदगी के बावजूद फैंस की दीवानगी ज़मीनी स्तर पर महसूस होती थी—“लोग स्टूडियो के बाहर कतार लगाते थे। एकता की कार अंदर तक नहीं आ पाती थी। लोग बस उन्हें छूना चाहते थे। शो की आइकॉनिक स्थिति का अंदाज़ा इसी से लगाइए।”


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