बंगालियों के लिए दुर्गा पूजा केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि एक भावना है—शक्ति का उत्सव और साथ होने का अहसास। लेखिका और प्रोड्यूसर बानीशिखा दास, जिन्होंने सsshhh कोई है…, बिदाई, रणबीर रानो, गोध भराई, मित्वा, गुलाल, डोली अरमानों की…, अशोक, महाराणा प्रताप, उड़ान और हाल ही में कलर्स के बिंद्दी जैसे प्रोजेक्ट्स पर काम किया है, इस खास समय का बेसब्री से इंतज़ार करती हैं। अपनी उत्सुकता साझा करते हुए बानीशिखा कहती हैं— “मेरे लिए दुर्गा पूजा देवी दुर्गा की आराधना, स्त्री-शक्ति और ऊर्जा का उत्सव, और परिवार व दोस्तों के साथ मिलकर आनंद मनाने का अद्भुत संगम है। सप्तमी से ही मैं पंडाल हॉपिंग और असली बंगाली व्यंजनों का मज़ा लेने के लिए बेताब रहती हूँ।” उन्होंने परंपरा को खूबसूरती से पौराणिक कथाओं से जोड़ा: “जैसे मान्यता है कि देवी दुर्गा अपने बच्चों—लक्ष्मी, सरस्वती, कार्तिक और गणेश—के साथ मायके आती हैं, वैसे ही हम बंगाली भी अपने ननिहाल जाकर परिवार के साथ भोजन, हंसी-मज़ाक और रिश्तों की गर्माहट का आनंद लेते हैं।”
मुंबई में बस चुकीं बानीशिखा कोलकाता पूजा की भव्यता को याद करती हैं, लेकिन पूरे भारत में मनाए जाने वाले उत्सवों की भी अपनी स्मृतियाँ संजोए हुए हैं। वह मुंबई की रौनक का बेसब्री से इंतज़ार करती हैं, ख़ासकर माँ दुर्गा की मूर्तियों की कलाकारी और पंडालों का जीवंत वातावरण।
“मैं पंडाल दर्शन के लिए सज-धज कर निकलने का इंतज़ार कर रही हूँ, खासकर बंगाल की साड़ियों में। साथ ही पंडालों के आसपास बंगाली खाने के स्टॉल्स का मज़ा लेने का। मुझे गायक अभिजीत भट्टाचार्य का पूजा बहुत पसंद है, रानी मुखर्जी और काजोल के परिवार द्वारा शुरू किया गया मुखर्जी परिवार का पूजा, और नवी मुंबई के भव्य उत्सव भी। और हाँ, मेरा सबसे पसंदीदा है—रानी मुखर्जी के पंडाल का भोग खिचड़ी!”
उनके लिए पूजा का आकर्षण इसकी रौनक, ध्वनियाँ और सुगंध में है। “मुझे दुर्गा पूजा की पूरी आत्मा ही पसंद है—पंडालों में बजता रवींद्र संगीत, टेराकोटा के गहने, बंगाली बिरयानी के स्टॉल्स और वह लाल-सफ़ेद बॉर्डर वाली साड़ियाँ, जिन्हें हम गर्व से पहनते हैं,” वह मुस्कुराते हुए कहती हैं अपनी पसंदीदा यादों को याद करते हुए बानीशिखा बताती हैं—“बचपन में सप्तमी से नवमी तक हर दिन के लिए मेरे माता-पिता हमें नए कपड़े दिलाते थे, और कभी-कभी दशमी के लिए भी। इसके अलावा रिश्तेदारों से मिले कपड़े भी होते थे। इस तरह हर साल लगभग 10 नए ड्रेस मिल जाते थे। यह मेरे लिए बचपन की सबसे बड़ी खुशियों में से एक थी।”
एक और याद उन्होंने साझा की—“मुझे भोग खिचड़ी प्रसाद के लिए लंबी कतारों में लगना याद है। मैं छोटी थी, तो लोगों के पैरों के बीच से निकलकर अपनी डिब्बी लेकर आगे पहुँच जाती थी, ताकि अपने परिवार के लिए पहले प्रसाद ले आऊँ। उस समय ये छोटी-छोटी खुशियाँ कितनी बड़ी लगती थीं!”आज भले ही ज़िंदगी व्यस्त हो, लेकिन दशमी पर एक रस्म बिजोया’r प्रोनाम बानीशिखा आज भी निभाती हैं। “पूजा के आख़िरी दिन, जो दशहरे से मेल खाता है, हम रिश्तेदारों के घर जाते थे, मिठाई और मछली लेकर, और बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे। आज भी मैं इसे अपने ढंग से निभाती हूँ—अपने माता-पिता को प्यार जताती हूँ, उनके लिए खाना बनाती हूँ, कोलकाता में अपने बड़ों और कज़िन्स को कॉल करती हूँ, और कभी-कभी मुंबई में दोस्तों को बिजोया की दावत पर बुलाती हूँ।”
