27 सितम्बर 2025 को तमिलनाडु के करूर में अभिनेता से राजनेता बने विजय की रैली त्रासदी में बदल गई। इस भगदड़ में कम से कम 40 लोगों की जान गई, जिनमें बच्चे भी शामिल थे। चश्मदीदों ने बताया कि भीड़ का दबाव, तंग जगह, घंटों पानी के बिना इंतज़ार और बिजली गुल होने से अंधेरा छा जाना, सभी हालात ने इस हादसे को जन्म दिया। घटना के बाद विजय की पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पर लापरवाही और गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज किया गया है।
अमेरिका स्थित एनजीओ नो मोर टियर्स की संस्थापक सोमी अली के लिए यह घटना एक बड़े सवाल की ओर इशारा करती है। उन्होंने पूछा,
“हम समाज के तौर पर कलाकारों को इतनी आसानी से राजनीतिक आइकॉन बनने क्यों देते हैं? कौन-सी मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक वजहें हैं, जो इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देती हैं?”
सोमी ने बताया कि भारतीय सिनेमा ने हमेशा मिथक और हक़ीक़त के बीच की रेखा को धुंधला किया है। उन्होंने कहा,“हमारी सामूहिक कल्पना में फ़िल्मी सितारे सिर्फ़ अभिनेता नहीं होते, बल्कि मसीहा, प्रेमी, उद्धारकर्ता होते हैं। यह मोह फ़िल्म ख़त्म होने के बाद भी नहीं टूटता। इसी वजह से परदे से सत्ता तक की छलांग लोगों को स्वाभाविक लगती है।” लेकिन उन्होंने चेतावनी दी—“आकर्षण अधिकार नहीं होता। शासन नीतियों, नैतिकता और सुरक्षा पर चलता है, न कि करिश्मे पर। करूर की त्रासदी बताती है कि यह सोच कितनी ख़तरनाक है।”
सोमी के अनुसार, सेलेब्रिटी राजनेताओं के प्रति यह जुनून असुरक्षा की जड़ों से आता है। उन्होंने कहा,“भारत जैसे देश में जहाँ असमानताएँ गहरी हैं, बहुत से लोग अपनी आवाज़ को अनसुना महसूस करते हैं। ऐसे में कोई बड़ा सितारा उनके लिए उम्मीद का पात्र बन जाता है। अभिनेता को चुनना उनके लिए प्रतीकात्मक विद्रोह है—‘मैं मायने रखता हूँ, मुझे देखा जा रहा है।’ लेकिन संस्थाएँ मज़बूत करने की जगह हम चमत्कार का वादा करने वाले व्यक्तित्वों का पीछा करते हैं।”
उन्होंने यह भी कहा कि यह केवल भारत तक सीमित नहीं है, लेकिन यहाँ सांस्कृतिक पहचान का पहलू और बड़ा है।“जब पहचान, धर्म, भाषा, जाति जैसी चीज़ें लगातार टकराती रहती हैं, तो कोई सितारा जो हमारी आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करे, उसका आकर्षण और भी गहरा हो जाता है,” उन्होंने समझाया।सोमी ने बताया कि प्रशंसक अक्सर अपने सपने इन सितारों पर थोप देते हैं।“जब लोग रैलियों में जुटते हैं, वे केवल उम्मीदवार का समर्थन नहीं करते, बल्कि एक फ़ैंटेसी को जीते हैं। रील और रियल गड्डमड्ड हो जाते हैं। जब तक हीरो करिश्माई है, उसकी गलतियाँ माफ़ कर दी जाती हैं,” उन्होंने कहा। लेकिन उन्होंने चेताया—“यह अंधभक्ति खतरनाक है। करूर भगदड़ को रोका जा सकता था—संकीर्ण स्थल, धूप में लंबे इंतज़ार, देर से पहुँचना, बिजली गुल होना—सब चेतावनी थे। फिर भी आलोचना को वैरभाव माना गया और फ़ैंस ने इसे धोखा समझा। हम संत पसंद करते हैं, जवाबदेही नहीं।”
सोमी ने कहा कि भारत तमाशे को नीति से ऊपर रखता है।“ये सेलेब्रिटी नेता अक्सर बिना किसी विधायी पृष्ठभूमि, पार्टी ढाँचे या प्रशासनिक अनुभव के आते हैं। वे केवल तमाशा लाते हैं—भव्य आयोजन, भावनात्मक भाषण, भीड़ जुटाने की क्षमता। और अक्सर यही वोट जीतने के लिए काफ़ी होता है,” उन्होंने कहा। “लेकिन इसकी क़ीमत भी चुकानी पड़ती है। करूर जैसी त्रासदियाँ होती हैं, हम शोक मनाते हैं, लेकिन यह नहीं पूछते कि हमने रणनीति की जगह स्टंट को क्यों स्वीकार किया।”
सोमी ने इसे एक मनोवैज्ञानिक पहलू से भी जोड़ा।“हम अपनी अधूरी इच्छाओं को सितारों पर थोपते हैं। वे हमारे लिए उद्धारक, अभिभावक, रक्षक बन जाते हैं। और जब वे असफल होते हैं, जैसा कि हमेशा होता है, तो हमें विश्वासघात लगता है। असल में हमारी ग़लती है कि हमने संस्थाओं की जगह व्यक्तियों पर भरोसा किया,” उन्होंने कहा।
सोमी ने संरचनात्मक बदलाव की अपील की।“हमें नागरिक साक्षरता बढ़ानी होगी, ध्यान व्यक्तित्व से नीति पर लाना होगा। मंच और सत्ता के बीच की सीमाएँ तय करनी होंगी। कलाकार संस्कृति को प्रेरित कर सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे राज्य को नियंत्रित करें,” उन्होंने कहा। “भारत को व्यक्तियों के बजाय संस्थाओं का सम्मान करना चाहिए। भीड़ की सुरक्षा, जवाबदेही और पारदर्शिता से कोई समझौता नहीं होना चाहिए, चाहे सितारा कितना ही बड़ा क्यों न हो।”
सोमी अली के लिए करूर की त्रासदी एक दर्दनाक लेकिन ज़रूरी आईना है।“ज़िंदगियाँ गईं। दोष तय करने से आगे बढ़कर हमें खुद से सवाल पूछना होगा—हम बार-बार नाटक करने वालों को ताक़त क्यों सौंप देते हैं? हम राजनीति को रंगमंच क्यों बना देते हैं?” उन्होंने कहा। अंत में उन्होंने परिपक्वता की अपील की“अगर भारत सच में बदलाव चाहता है, अगर हम विश्व महाशक्ति बनना चाहते हैं, तो हमें अभिनेताओं को देवता बनाना बंद करना होगा। लोकतंत्र प्रतीकों की पूजा नहीं, जवाबदेही की मांग है।”
